Sunday, 16 October 2016

घर में लक्ष्मी के स्थाई वास के लिए दीवाली पर करें झाड़ू का ये उपाय...चमक जाएगी किस्मत 


"diwali2016"

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 कहते हैं कि नियमित रूप से प्रात: और सायं काल में घर और कार्यस्थल की झाडृू से सफाई करने से स्वच्छता के साथ धन की प्राप्ति भी होती है


 शास्त्रों के अनुसार झाड़ू को धन की देवी महालक्ष्मी का प्रतीक मानते हुए झाडू़ को उचित और साफ -सुथरी जगह पर रखने को कहा गया है। कहते हैं कि नियमित रूप से प्रात: और सायं काल में घर और कार्यस्थल की झाडृू से सफाई करने से स्वच्छता के साथ धन की प्राप्ति भी होती है।


यही वजह है कि सुबह झाडू़ लगाने की परंपरा घरों में है। जिन घरों में नियमित रूप से झाड़ू नहीं लगाई जाती वहां दरिद्रता निवास करती है। झाडू को महालक्ष्मीजी का प्रतीक मानने वालों के अनुसार झाडू को कभी पैर नहीं लगाने चाहिए। झाड़ू का उपयोग पूरा होने के बाद उसे किसी ऐसे सुरक्षित स्थान पर रख देना चाहिए, जहां इस पर किसी की नजर न पड़े।

माना जाता है कि अपवित्र, गंदे और पानी वाले स्थान पर झाड़ू को नहीं रखना चाहिए। दीवार के सहारे भी झाड़ू को खड़ी नहीं रखते। घर, दुकान या कार्यस्थल आदि की सफाई में काम आने वाले झाडू़ से भूल कर भी सड़क, नाली या मल-मूत्र की सफाई नहीं करनी चाहिए। घर के किसी सदस्य या मेहमान के जाने के तुरंत बाद झाड़ू लगाना अशुभ माना जाता है।


घटती-बढती हैं घर की आमदनी..

झाड़ू को हमेशा छुपाकर रखना चाहिए, जहां किसी की नजर ना पहुंच सके। झाड़ू को दरवाजे के पीछे रखना काफी शुभ माना गया है। देवी लक्ष्मी का पूरा सम्मान करने पर ही वे हमारे घर पर कृपा बनाए रखेंगी।
घर यदि साफ और स्वच्छ रहेगा तो हमारे जीवन में धन संबंधी कई परेशानियां स्वत: ही दूर हो जाती हैं। जब घर में झाड़ू का इस्तेमाल न हो, तब उसे नजरों के सामने से हटाकर रखना चाहिए।

जब घर में झाड़ू का कार्य न हो तब उसे ऐसे स्थान पर रखा जाता है जहां किसी की नजर न पड़े। वास्तु के अनुसार भी ऐसी मान्यता है कि यदि झाड़ू बाहर दिखाई देती है तो घर में कलह होता है। विद्वानों के अनुसार झाड़ू पर पैर लगने से महालक्ष्मी का अनादर होता है।

ऐसे ही झाड़ू के कुछ सतर्कता के नुस्खे अपनाये गये जैसे


झाड़ू को कभी भी खड़ा नहीं रखना चाहिए।
- ध्यान रहे झाड़ू पर जाने-अनजाने पैर नहीं लगने चाहिए, इससे महालक्ष्मी का अपमान होता है।
- झाड़ू हमेशा साफ रखें, गीला न छोड़े ।
- ज्यादा पुरानी झाड़ू को घर में न रखें।
- झाड़ू को कभी घर के बाहर बिखरकर न फहके ,जलाना नहीं चाहिए।
- शनिवार को पुरानी झाड़ू बदल देना चाहिए।
- सपने मे झाड़ू देखने का मतलब है नुकसान।
- घर के मुख्य दरवाजा के पीछे एक छोटी झाड़ू टांगकर रखना चाहिए। इससे घर में लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।
- पूजा घर के ईशान कोण यानी उत्तर-पूर्वी कोने में झाडू व कूड़ेदान आदि नहीं रखना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से घर में नकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है और घर में बरकत नहीं रहती है इसलिए वास्तु के अनुसार अगर संभव हो तो पूजा घर को साफ करने के लिए एक अलग से साफ कपड़े को रखें।

Sunday, 2 October 2016

History of #Dongargarh और इस तरह इतिहास के पन्नो पर अमर हो गया हमारा डोंगरगढ़

और इस तरह इतिहास के पन्नो पर अमर हो गया हमारा डोंगरगढ़ 

#Navaratri #Navaratri2016







इतिहास काफी पुराना

छत्तीसगढ़ राज्य की सबसे ऊंची चोटी पर विराजित डोंगरगढ़ की देवी बम्लेश्वरी का इतिहास काफी पुराना है। वैसे तो साल भर देवी के दरबार में भक्तों का रेला लगा रहता है लेकिन लगभग दो हजार साल पहले माधवानल और कामकंदला की प्रेम कहानी से महकने वाली कामावती नगरी में नवरात्रि के दौरान अलग ही दृश्य होता है।  नवरात्रि में ऊपर मंदिर में 6 हजार और नीचे मंदिर में 8 हजार मनोकामना ज्योति कलश प्रज्जवलित किए जाते हैं।

Maa Bamleshwari 



नगरी के राजा ने मंदिर की स्थापना की थी
वैसे तो देवी बम्लेश्वरी के मंदिर की स्थापना को लेकर कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है पर जो तथ्य सामने आए हैं उसके मुताबिक उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को मां बगलामुखी ने सपना दिया था और उसके बाद डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर कामाख्या नगरी के राजा कामसेन ने मां के मंदिर की स्थापना की थी।
युद्ध के मैदान में पहुंची

एक कहानी यह भी है कि राजा कामसेन और विक्रमादित्य के बीच युद्ध में राजा विक्रमादित्य के आह्वान पर उनके कुल देव उज्जैन के महाकाल कामसेन की सेना का विनाश करने लगे और जब कामसेन ने अपनी कुल देवी मां बम्लेश्वरी का आह्वान किया तो वे युद्ध के मैदान में पहुंची। उन्हें देखकर महाकाल ने अपने वाहन नंदी से उतरकर देवी की शक्ति को प्रणाम किया और फिर दोनों देशों के बीच समझौता हुआ।
पहाड़ी में देवी की प्रतिमा प्रकट हो गई

इसके बाद भगवान शिव और मां बम्लेश्वरी अपने-अपने लोक को विदा हुए। इसके बाद ही मां बम्लेश्वरी के पहाड़ी पर विराजित होने की भी कहानी है।यह भी कहा जाता है कि कामाख्या नगरी जब प्रकृति के तहत नहस में नष्ट हो गई थी तब डोंगरी में मां की प्रतिमा स्व विराजित प्रकट हो गई थी। सिद्ध महापुरूषों और संतों ने अपने आत्मबल और तत्वज्ञान से यह जान लिया कि पहाड़ी में देवी की प्रतिमा प्रकट हो गई है और इसके बाद मंदिर की स्थापना की गई।

Dongargarh TEMPLE 



राजाओं द्वारा मंदिर की देखरेख

प्राकृतिक रूप से चारों ओर से पहाड़ों में घिरे डोंगरगढ़ की सबसे ऊंची पहाड़ी पर देवी का मंदिर स्थापित है। पहले देवी के दर्शन के लिए पहाड़ों से ही होकर जाया जाता था लेकिन कालांतर में यहां सीढिय़ां बनाई गईं और के मंदिर को भव्य स्वरूप देने का काम लगातार जारी है। पूर्व में खैरागढ़ रियासत के राजाओं द्वारा मंदिर की देखरेख की जाती थी।

रोप वे की भी व्यवस्था

बाद में राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने ट्रस्ट का गठन कर मंदिर के संचालन का काम जनता को सौंप दिया। अब मंदिर में जाने के लिए रोप वे की भी व्यवस्था हो गई है और मंदिर ट्रस्ट अस्पताल धर्मशाला जैसे कई सुविधाओं की दिशा में काम कर रहा है।


दो मंदिर विश्व प्रसिद्ध




देवी बम्लेश्वरी के दो मंदिर विश्व प्रसिद्ध हैं। एक मंदिर 16 सौ फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है जो बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध है। समतल पर स्थित मंदिर छोटी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है। ऊपर विराजित मां और नीचे विराजित मां को एक दूसरे की बहन कहा जाता है। ऊपर वाली मां बड़ी और नीचे वाली छोटी बहन मानी गई है।सन 1964 में खैरागढ़ रियासत के भूतपूर्व नरेश राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर मंदिर का संचालन ट्रस्ट को सौंप दिया था।

वैभवशाली कामाख्या नगरी

देवी बम्लेश्वरी देवी शक्तिपीठ का इतिहास लगभग 2200 वर्ष पुराना है। डोंगरगढ़ से प्राप्त भग्रावेशों से प्राचीन कामावती नगरी होने के प्रमाण मिले हैं। पूर्व में डोंगरगढ़ ही वैभवशाली कामाख्या नगरी कहलाती थी।

विक्रमादित्य की कुल देवी

देवी बम्लेश्वरी मंदिर के इतिहास को लेकर कोई स्पष्ट तथ्य तो मौजूद नहीं है, लेकिन मंदिर के इतिहास को लेकर जो पुस्तकें और दस्तावेज सामने आए हैं, उसके मुताबिक डोंगरगढ़ का इतिहास मध्यप्रदेश के उज्जैन से जुड़ा हुआ है। देवी बम्लेश्वरी को मध्यप्रदेश के उज्जैयनी के प्रतापी राजा विक्रमादित्य की कुल देवी भी कहा जाता है।

छत्तीसगढ़ में हुआ था परशुराम-गणेश युद्ध, 3 हजार फीट पर विराजमान है गणेश

छत्तीसगढ़ में हुआ था परशुराम-गणेश युद्ध, 3 हजार फीट पर विराजमान है गणेश








पौराणिक कथाओं में परशुराम और भगवान गणेश के बीच जिस युद्ध का वर्णन है वह छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के ढोलकल पहाडिय़ों पर हुआ था। यहां आज भी इस बात के प्रमाण मिलते हैं।
जगदलपुर। पौराणिक कथाओं में परशुराम और भगवान गणेश के बीच जिस युद्ध का वर्णन है वह छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के ढोलकल पहाडिय़ों पर हुआ था। यहां आज भी इस बात के प्रमाण मिलते हैं। यहां समुद्र तल से 2994 फीट ऊंची चोटी पर भगवान गणेश विराजे हुए हैं।




यह कोई नहीं जानता, इतनी ऊंचाई पर गणेश की प्रतिमा कैसे पहुंची। स्थानीय आदिवासी भगवान गणेश को अपना रक्षक मानकर पूजा करते हैं। यहां के आदिवासी बताते हैं ढोलकल शिखर के पास स्थित दूसरे शिखर पर सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित थी जो 15 साल पहले चोरी हो चुकी है।
रहस्मय है यहां के गणेश


dholkal ganeshपुरातत्ववेत्ताओं के मुताबिक यह प्रतिमा 11 वीं सदी की है। तब यहां नागवंशी राजाओं का शासन था। गणेश प्रतिमा के पेट पर नाग का चित्र अंकित है। इस आधार पर माना जाता है, इसकी स्थापना नागवंशी राजाओं ने की होगी। यह प्रतिमा पूरी तरह सुरक्षित और ललितासन में है।
हालांकि इतनी ऊंचाई पर ले जाने या इसे बनाने के लिए कौन सी तकनीक अपनाई गई यह रहस्य है। आर्कियोलॉजिस्ट के मुताबिक पूरे बस्तर में ऐसे प्रतिमा और कहीं नहीं है। इसलिए यह रहस्य और भी गहरा हो जाता है कि ऐसी एक ही प्रतिमा यहां कहां से आई।

लोक मान्यता है प्रचलित


यहां प्रचलित किवदंतियां भी इस बात की पुष्टि करती है। दक्षिण बस्तर के भोगामी आदिवासी परिवार अपनी उत्पत्ति ढोलकट्टा (ढोलकल) की महिला पुजारी से मानते हैं। क्षेत्र में यह कथा प्रचलित है कि भगवान गणेश और परशूराम का युद्ध इसी शिखर पर हुआ था। युद्ध के दौरान भगवान गणेश का एक दांत यहां टूट गया।
इस घटना को चिरस्थाई बनाने के लिए छिंदक नागवंशी राजाओं ने शिखर पर गणेश की प्रतिमा स्थापति की। चूंकि परशूराम के फरसे से गणेश का दांत टूटा था, इसलिए पहाड़ी की शिखर के नीचे के गांव का नाम फरसपाल रखा गया। बगल में कोतवाल पारा गांव है। कोतवाल मतलब रक्षक या पहरेदार। लोग यहां गणेश को अपने क्षेत्र का रक्षक मानते हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण कथानक में है मिलता है वर्णन

dholkal ganesh ब्रह्मवैवर्त पुराण कथानक में भी इसी प्रकार का वर्णन मिलता है। पुराण में वर्णित कथा के मुताबिक कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी ने जब परशुराम को रोका तो वह बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उन्हें स्तंभित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराया।
इसके बाद गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करा कर भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुराम ओर गणेश के बीच भूलोक पर युद्ध हुआ। परशुराम ने फरसे से गणेश जी पर प्रहार किया। इससे गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये।

अद्भुत है प्रतिमा

प्रतिमा के दर्शन के लिए उस पहाड़ पर चढऩा बहुत कठिन है। विशेष मौकों पर ही लोग वहां पूजा-पाठ के लिए जाते हैं। करीब तीन फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी ग्रेनाइट पत्थर से बनी यह प्रतिमा बेहद कलात्मक है। गणपति की इस प्रतिमा में ऊपरी दाएं हाथ में फरसा और ऊपरी बाएं हाथ में टूटा हुआ एक दांत है जबकि आशीवाज़्द की मुद्रा में नीचले दाएं हाथ में वे माला धारण किए हुए हैं और बाएं हाथ में मोदक है।


इसलिए पड़ा ढोलकल नाम

ढोलकल पहाड़ी दंतेवाड़ा शहर से करीब 22 किलोमीटर दूर है। कुछ ही साल पहले पुरातत्व विभाग ने प्रतिमा की खोज की।
थानीय भाषा में कल का मतलब पहाड़ होता है। इसलिए ढोलकल के दो मतलब निकाले जाते हैं।
एक तो ये कि ढोलकल पहाड़ी की वह चोटी जहां गणपति प्रतिमा है वह बिलकुल बेलनाकार ढोल की की तरह खड़ी है और दूसरा, वहां ढोल बजाने से दूर तक उसकी आवाज सुनाई देती है।

कठिन है यहां तक पहुंचना

दंतेवाड़ा से 22 किमी दूर ढोलकल शिखर तक पहुंचने के लिए दंतेवाड़ा से करीब 18 किलोमीटर दूर फरसपाल जाना पड़ता है। यहां से कोतवाल पारा होकर जामपारा तक पहुंच मार्ग है।
जामपारा में वाहन खड़ी कर तथा ग्रामीणों के सहयोग से शिखर तक पहुंचा जा सकता है। जामपारा पहाड़ के नीचे है। यहां से करीब तीन घंटे पैदल चलकर तक पहाड़ी पगडंडियों से होकर ऊपर पहुंचना पड़ता है। बारिश के दिनों में पहाड़ी नाला बाधक है।